सुना था बहुत, ये इश्क नहीं आशां
बस इतना समझ लिझे, इक आग का
दरिया है और डूब के जाना है।
हंसा था इस पे बहुत मैं,
कैसी आग और कैसा दरिया?
आह! जब गुजरी ख़ुद पे,
तो हँसी नही आया रोना।
सच है, ये इश्क नही आशां।
शायरों ने भले ही लिखा कुछ
बढाकर, पर लिख दिया वो,
जो मुमकिन नहीं करना
बयां लफ्जों में।
बस इतना समझ लिझे, इक आग का
दरिया है और डूब के जाना है।
हंसा था इस पे बहुत मैं,
कैसी आग और कैसा दरिया?
आह! जब गुजरी ख़ुद पे,
तो हँसी नही आया रोना।
सच है, ये इश्क नही आशां।
शायरों ने भले ही लिखा कुछ
बढाकर, पर लिख दिया वो,
जो मुमकिन नहीं करना
बयां लफ्जों में।
Comments