Two poems I wrote a couple of years ago, when I was preparing for IIT JEE, and things were really tough all around.
I wrote this poem two days before Diwali, I don't know why I wrote this , but after writing this i realize that Diwali here resembles hope for life, light and happiness.
दिवाली तू लेकर आ,फिर जीने की चाह
रोक मुझे अनजाने पथ से, सारा जीवन तुझ पर निर्भर
मृत्यु पथ पर तू एक सुंदर बाधा, फिर एक चाह बनी है शायद
चिंगारी कोई दिखी है शायद, शायद मुझे रोक सके तू
शायद मुझे रोप सके तू, मैं एक टूटी शाख
लगाये हुए हूँ तुझसे आश,
मेरे मन की ज्वाला दिवाली समेट सके तू आज
सिर पर लिए एक बोझा जा रहा हूँ
दिवाली तू रोक सके मुझे अनजाने पथ से
सारा जीवन तुझ पर निर्भर
मृत्यु पथ पर तू एक सुंदर बाधा।
जीवन के इस पड़ाव पर हूँ शायद मैं नितांत अकेला
चाह रहा हूँ तेरा साथ, चाह रहा मैं उस अनजान की यात्रा
दे सके तू मेरा साथ,
जब था मैं एक शोला, लोगों ने मुझे सराहा
जब आज मैं शीतल हुआ, लोगों ने मुझे दुत्कारा
चाह रहा एक रोशनी, चाह रहा मैं तेरा साथ,
दीवाली तू लेकर आ फिर जीने की चाह
दिन गुजरे माह बीते बदला जीवन का ढंग
संगी साथी सब छूट गए फिर भी एक आश
जो जगा रही है जीवन की चाह
दिवाली तू लेकर आ
दिवाली तू लेकर आ
This poem I wrote for my brother Vivek, with whom I lived most time of my childhood, we did lots of mischiefs together, lots of new experiments which used to fail mostly great time, I wrote this poem two years back when for the first time we left the home for two different places.
तुझे याद नहीं आते, मुझसे भुलाये नहीं जाते
उन लम्हों को याद किए बिना दिन गुजारे नहीं जाते,
वो दिन मुझे रह रह कर याद आते हैं,
तू क्यूँ उन्हें भूल जाता हैं ।
बेशक बचपन तेरा छूट गया,
पर बड़प्पन मेरा आ नहीं पाया है।
तू तो बड़ा हो गया पर मैं नहीं हो पाया
अभी भी याद आती हैं,
सिक्कों और टिकटों की हमारी दीवानगी
मुझे याद आते हैं वो नाच, वो गानें
वो आग से तपना और रातों को अपने बोलों से जगाना!
शिविर के वो दिन वो जालिम टेप
काटें की रातें वो रातों मैं तेरा जगना
क्या तुझे याद नहीं आते वो काचर वो मतीरे
वो खरबूजों की अपनी चाहत
मुझे रह रह कर याद आते हैं तू क्यूँ उन्हें भूल जाता है
I wrote this poem two days before Diwali, I don't know why I wrote this , but after writing this i realize that Diwali here resembles hope for life, light and happiness.
दिवाली तू लेकर आ,फिर जीने की चाह
रोक मुझे अनजाने पथ से, सारा जीवन तुझ पर निर्भर
मृत्यु पथ पर तू एक सुंदर बाधा, फिर एक चाह बनी है शायद
चिंगारी कोई दिखी है शायद, शायद मुझे रोक सके तू
शायद मुझे रोप सके तू, मैं एक टूटी शाख
लगाये हुए हूँ तुझसे आश,
मेरे मन की ज्वाला दिवाली समेट सके तू आज
सिर पर लिए एक बोझा जा रहा हूँ
दिवाली तू रोक सके मुझे अनजाने पथ से
सारा जीवन तुझ पर निर्भर
मृत्यु पथ पर तू एक सुंदर बाधा।
जीवन के इस पड़ाव पर हूँ शायद मैं नितांत अकेला
चाह रहा हूँ तेरा साथ, चाह रहा मैं उस अनजान की यात्रा
दे सके तू मेरा साथ,
जब था मैं एक शोला, लोगों ने मुझे सराहा
जब आज मैं शीतल हुआ, लोगों ने मुझे दुत्कारा
चाह रहा एक रोशनी, चाह रहा मैं तेरा साथ,
दीवाली तू लेकर आ फिर जीने की चाह
दिन गुजरे माह बीते बदला जीवन का ढंग
संगी साथी सब छूट गए फिर भी एक आश
जो जगा रही है जीवन की चाह
दिवाली तू लेकर आ
दिवाली तू लेकर आ
This poem I wrote for my brother Vivek, with whom I lived most time of my childhood, we did lots of mischiefs together, lots of new experiments which used to fail mostly great time, I wrote this poem two years back when for the first time we left the home for two different places.
तुझे याद नहीं आते, मुझसे भुलाये नहीं जाते
उन लम्हों को याद किए बिना दिन गुजारे नहीं जाते,
वो दिन मुझे रह रह कर याद आते हैं,
तू क्यूँ उन्हें भूल जाता हैं ।
बेशक बचपन तेरा छूट गया,
पर बड़प्पन मेरा आ नहीं पाया है।
तू तो बड़ा हो गया पर मैं नहीं हो पाया
अभी भी याद आती हैं,
सिक्कों और टिकटों की हमारी दीवानगी
मुझे याद आते हैं वो नाच, वो गानें
वो आग से तपना और रातों को अपने बोलों से जगाना!
शिविर के वो दिन वो जालिम टेप
काटें की रातें वो रातों मैं तेरा जगना
क्या तुझे याद नहीं आते वो काचर वो मतीरे
वो खरबूजों की अपनी चाहत
मुझे रह रह कर याद आते हैं तू क्यूँ उन्हें भूल जाता है
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