I am writing a poem from a letter I wrote to someone, few days before, though I couldn't give this letter yet, I want to give it, someday! गिरता गिरता गिर ही गया उठने की कोशिश की तो फिर गिर गया, दरवाजे तक तो पहुँच गया पर भीतर जाने को न हुआ। उठता उठता फिर गिर गया सोचता रहा औरों ने मुझे गिराया है, पता चला मैं तो खुद ही गिर गया। शीशे मैं देखा तो दंग रह गया, न मैं था न मेरा प्रतिबिम्ब था, अपनी नज़रों से भी गिर गया था मैं शीशे मैं देखा न मैं था न मेरा प्रतिबिम्ब था। रोज रोज वही कहानी दोहराता गया सुबह को प्रण लेता, रात होते होते भूल जाता गया। अपनी नाकामी का इलजाम औरों पे लगाता गया, पता चला अपना गुनाहगार तो खुद हूँ मैं। इतना गिरा हूँ की गड्डे में भी आबाद हूँ शर्म और हया से अनजान हूँ मैं, मौत भी मुझे गले न लगायेगी इसीलिए शायद जिंदा हूँ मैं
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